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अश्कों की स्याही से लिखे हर्फ़-ए-ग़म मेरे

Laptop wala Soofi
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सोंचा ख्यालों के छैनी हथौडों से दिल की मरम्मत कर लूं

मैं टूटे-फ़ूटे शब्दों से अपने अहसासों को कलमबद्ध कर लूं

और इसलिये कुछ कच्चा पका सा बेलुत्फ़ बेतकसीर लाया हूं

मैं आपकी खिदमत में अपने सीने से चंद जज़्बातें चीर लाया हूं ;

बेहूनर हैं हाथ मेरे और जज़्बातों में उफ़ान बहुत है

मुमकिन है शब्दों का भटकना सीने में तुफ़ान बहुत है

माफ़ करना अगर जो मैं नज़्मों कि बिगडी तस्वीर लाया हूं

कुछ बेदानीशपन में ,कुछ खुशफ़हम में,जो बेतरीब तहरीर लाया हूं

 

बडा जज़्बाती हूं मैं,हमेंशा दिल से काम लेने वाला और शायद इसलिये ज़िन्दगी के शतरंजी बिसात में जहां लोगों के महात्वाकांक्षी घोडे. नैतिकता के खाने को फ़ांदकर ढाई चाल चलते हैं,नैतिकता की सुस्त चाल चलने वाला मेरे दिल का मोहरा अक्सर पिट जाता है……..पेशे खिदमत है आपके मेरे पिटे दिल की कुछ कराहें:

 

 

दरिया-ए-पायाब हूं मैं ,एक समन्दर तलाश रहा हूं
मैं गर्दिश-ए-अय्याम में,अपना मुकद्दर तलाश रहा हूं

 

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अपने सीने मे हम टूटे ख्वाबों का चुभन रखते हैं
दर्द के तलबगार है इसलिये शौके सुखन रखते हैं

 
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बेमुरब्बत आंधियों के हवाले जो चराग ए यार करते हो
बडे. खुदफ़रेबी हो जो किसी हसीना से प्यार करते हो

 

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अपने ज़िन्दगी का खस-ओ-खुशबू हम कब का बांट आये
अब जो सांसों में बचा है वो बस खुश्क हवाऒं का कतरा है

 
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शबे तसव्वुर में जिसे हम चांद समझा करते थे
नींद से जागा तो पाया वह दहका अंगारा था
और जो था खामेख्याली का हंसी मनाज़िर
वो मेरे हीं किस्मत का टूटता सितारा था

 

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       किसी शिकस्ता दिल से पूछो कि
       मुहब्बत किस शै का नाम है
      ये वो अज़ाब(सज़ा) है जिसमे
        सपने सलीब पे चढते हैं

 

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तोड. दूं मैं हर आइना,अक्सबारी का हर साजोसामान
कि जिधर देखता हूं मुझे तू हीं तू नज़र आती है

 

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ज़िन्दगी की मुसाफ़त में हर कोइ रवां होता है
    किसी के पैरों तले शबनम किसी के शोला दबा होता है
          किसी के पैमाने में मयस्सर होत है सागर
           किसी के हलक पे तश्ने सेहरा होता है

 
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सपने सिरहौने रख कर शबगुज़ारी करते हैं
हम वो जुगनू हैं जो रात भर जलते हैं

 

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शीशे और पत्थर का इश्क तेरा मेरा
अंजाम बस टूटने के सिवा क्या है

 
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सोंचते हैं कि इस मुख्तसर ज़िन्दगी में क्या बन के जियें,
कोई माशुका मिल जाये तो अहले-वफ़ा बन के जियें

 

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मैं शीशा हूं तू पत्थर है,तू मेरा अहले मुकद्दर है
मैं जीयुंगा या मर जाउंगा,ये फ़ैसला तेरे ऊपर है

      

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क्युं इश्क में हर सितम हम सहें 
तुम खुश रहो और गम हम सहें
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नूरानी चांद की नक्काशी आज की रात में ,
पूराने शराब की सरताबी आज की रात में,
आज की रात खुशनूमा बडा. मंज़र है ,
फ़िर भी ये चुभता है ऐसे जैसे खंज़र है ,
न जाने कैसी है उदासी आज की रात में ,
तन्हा दिल रोता है मेरा,जो तू नहीं साथ में
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उनको महबूब परस्ती का शौक था ,
हममें इश्क पे लुटने का शौक चस्पा था ,
वो मुस्कुराते हुए कत्ल करते थे,
हममें मुस्कुराते हुए मरने का जज़्बा था ,
हुस्न और इश्क दोनो ने नियाज़ पा लिया,
हुस्न ने इश्क को और इश्क ने हुस्न को आज़मा लिया,
वो लूटते लूटते बन गये अहले-करम,
हम लुटते लुटते बन गये अहले-करम,
रंगे-रिवाज़ों का ये ऐसा झरोखा था ,
इस तरफ़ वफ़ा थी उस तरफ़ धोखा था :

 

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कौन कहता है दर्द से शिक्त आवाजें                                                
बडी. पुरकशीश होती हैं ,                                                                                   
खींच लाती हैं अपनों को ;                                                                                      
गर ऐसा होता तो मुझपे
यूं बेज़ाड. तन्हाईयों का                                                         
साया न होता:   

 

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तुम कहां हो कि तुम्हें भेजी उम्मीदों की बैरन चिट्ठी मेरी,
हर बार मेरे हीं पते पे लौट जाती है:
तुम कहां हो कि तुम्हें भेजा मेरे मुहब्ब्त का हर पयाम,
तन्हां वादियों में पूकारे आवाज के मानिंद
बार-बार मेरे हीं दयार में गुंजता है:
क्या कभी मेरे पुरसोज़ सांसों का कोई लम्स ,
कोई छूअन तुम्हें महसूस नहीं हुआ :
क्या कभी मेरे आंखों से छलकते
किसी अश्क के कतरे ने तुमको नहीं छुआ :
क्या तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि
मैं तुम्हें मुसलसल पूकार रहा हूँ :
क्या तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि
तुम्हारे इंतज़ार में मैं अपनी सांसें हार रहा हूं:
इससे पहले कि मेरे मुख्त्सर ज़िंदगी का सूरज ढल जाए कहीं :
आ जाओ कि विरहन की आग में न हम जल जाएं कहीं:
          

 
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अपने हिस्से का सूरज हम बांटने गये थे
कल जिस अंधियारे के बाशिन्दे को ,
आज उसी को हमने किसी से
रौशनी की सौदागरी करते देखा,
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तर्ज़े-तपाक-अहले-दुनियां कुछ इस तरह की है ,
कि कोई हाल भी पूछे तो दिल को शुबह होता है.

 

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दिल दस दलीलें देकर कहता है मोहब्बत करने को,
ज़िन्दगी ज़ख्मे-जिगर दिखाकर हौसला पस्त कर देती है
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ए दर्द तुझे मेरे आंखों पे अता होना हीं होगा,
ज़माने की शिकायत है कि हम बहुत हंसते हैं

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उस पुर्णमासी की रात जब चांद की गागरी से चांदनी छलक रही थी,
ज़रूर चुपके से तूने अपने रूख में वो कतरा-ए-नूर भर लिया होगा

 

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जो बेइश्क ज़िंदा हो तो मियां क्या खाक ज़िंदा हो,
इश्क करने वाले तो बाद-ए-फ़ना भी जीया करते हैं.

 

 

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वो चाक ज़िगर पे करते हैं
फ़िर खैरो-बरकत पूछते हैं

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कब कैसे इस कदर ग़म हुआ मुझमे पिन्हाँ
न इल्म-ए-इब्तिदा मुझको न इल्म-ए-इम्तहाँ
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