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बेरूख ,बेदिल,सितमज़रीफ़ ….घबराइए मत यह मुगलजातों का लच्छा मैं JJ मंच के किसी व्यक्ति-विशेष के लिए नहीं निकाल रहा …ये बद-बख्त अल्फाज़ तो मेरे उस बेमुरब्बत सनम के लिए है जो मुझसे दिल-आशनाई कर ,मेरा दिल तोड़ कर चली गयी …
मेरी लेखनी पर अंतर-निहित वेदनाओं का जब आगमन होगा
कुछ तेरे,कुछ जग के दिए,असीम पीडाओं का जब आकलन होगा
अपने किये कर्मों को क्या छल पाओगी तुम ?
मेरे दर्द के अहसासों से क्या बच जाओगी तुम ?
अतीत के चित्रपट पे तब तुम निश्चय देखोगी
हुआ आश्रित था मैं तुझपे ,मेरा चैन तुम लूटोगी
छल जाओगी मुझको तुम ,मेरे हीं एक भूल से
विश्वास वो गहरा पड़ा है आहत,देखो सिंचित धूल से
और फिर तब निष्ठुर जग ये हसने मुझपर आएगा
बची चंद सांसो को भी छीन चला वो जायेगा
लुट चुकी वो वैभव होगी जिसपे मैं इतराता था
मेरे वो सम्मान थे प्यारे जिसमे मैं मर जाता था
मेरे अरमान के लाशों से फिर तुम शायद गुजर जाओगी
टूटा मेरा आशियाँ तो क्या,नवीन दुनिया तुम तो बसाओगी
पर जो सोंचो मेरी गली से होकर तेरी डोली का गमन होगा
वहीँ बस थोड़ी दूर पर मेरी चिता का जब शमन होगा
अपने किये कर्मों को क्या छल पाओगी तुम ?
मेरे दर्द के अहसासों से क्या बच जाओगी तुम ?
चलिए लगे हाथों ऊपर वाले से भी गुहार लगा लेते हैं …क्या पता नाला-ए-फरियाद पे कुछ करवाई हो जाये –
हे हरी हर लो मेरी पीड़ा
बंशी की तुम तान से
फिर कोई ऐसी राग सुनाओ
झूमे जग मधुर गान से
विनय की वो तेरी रागिनी
अब न मुझसे गायी जाती
हरी मैं निज से हारा जाता
विरह वेदना गहराई जाती
द्वेष-राज का राजा देखो
कंस मुझे है मारने आया
प्रेम महान वो भूले भव में
असंख्य अनीकिनी संग है लाया
छीन ली उसने मेरी राधा
अनय-अनख एक बाण से
हे गिरधर मैं गिरा जाता
चोटिल उस अपमान से
प्रतिनिधि था प्रेम के तेरे
भावहीन इस भव में मैं
लुटी मेरी निज की निधि,
अब आस पड़ा हूँ तेरे मैं
आओ अब अवसान कंस का
द्वेष-दुष्ट को मारो
करो किशन तुम कृतज्ञ मुझे
अब मेरी दशा सूधारो
हे हरी हर लो मेरी पीड़ा
बंशी की तुम तान से
फिर कोई ऐसी राग सुनाओ
झूमे जग मधुर गान से
अंत में JJ मंच के अपने सभी दोस्तों(खास कर राजकमल जी ,आनंद जी ,शशि भूषण जी ,संदीप जी और अनिल जी से ) कहना चाहूँगा कि कितना उम्दा लिखते हैं आप, जब आप आपसी द्वेष के दलदल से बाहर निकल कर, अपने लेख में व्यपगत विचारों का मवाद नहीं ,बल्कि जब आप अपने महान विचारों की लड़ियाँ पिरोते हैं …आपसे कहूँ या न कहूँ पर आह …पढ़ कर वाह वाह निकलती है जुबान से …. आपसे अपने एक शेर के ज़रिये यह कहना चाहूँगा कि –
ए दोस्त यूं जाया न कर अपने इल्म के सौगात को
जो है हुनर तो हंसा दे किसी दिल -ए- नाशाद को
और हाँ उन दोस्तों से भी गुजारिश करना चाहूँगा जो किसी का समर्थन देकर या फिर किसी के निष्कासन की बात कर , बहिष्कार की बात कर ,उपेक्षा की बात कर जाने अनजाने में वैमन्यस्ता को बढ़ावा दे रहे हैं …आत्मस्वीकारुक्ति मेरी -मैं भी ऐसा कर जाता हूँ ..जबकि हमे करना तो यह चाहिए कि जिनके दिल में खलीश है , पीडन हैं ,उनके दिल में हम अपने प्यार का मरहम लगायें ..सबको अपनाएं …सबको प्यार से समझाएं ….हैं न ऐसे कुछ शख्स -चन्दन जी ,दिनेश जी …किसी का पक्ष नहीं लेते ,किसी से वैर नहीं इनका …हमेशा मेलो मिल्लत की बात करते हैं …क्या हम ऐसा नहीं कर सकते ….हमारे कलम में इतना बुता है ,हमारे विचारों में इतनी द्रुत-गामिता है कि हम चाहें तो महानता के शिखर पे पहुँच सकते हैं ..जरुरत है तो बस एक संकल्प की-
आ मेरे नासिर आ ज़रा
बंज़र में घांस उगा दें
अपने कलम की हरारत से
चल पत्थर को पिघला दें
एक मातम सा पसरा है
हर दिल के दयार में
आ इस उजड़े फ़िज़ां को फिर
बसंती वितान ओढा दें
आमीन .
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