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राम जाने लोग तुक बंदी करते हैं कि थूक बंदी

Laptop wala Soofi
Laptop wala Soofi
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वो ज़माना था अहले-ज़फाओं का …तब मुहब्बतदारी जुर्म नहीं दर जुर्म हुआ करती थी और मुहब्बत की हिमाकत करने वालों को पत्थरों से मारा जाता था …उसी ज़माने में मजनू ने भी खाए थे पत्थर पर खुदा कसम आलोचनाओं के जितने पत्थर  Folly Ji ने खाए हैं ,क्या मजनू ने खाए होंगे…..अगर उनके तादात को आधार बनाया जाए तो फिर तो Folly जी सरासर गलत हैं….. पर ऐसा है नहीं…. क्यूंकि कभी कभी majority means all the fools are at one side .

क्यूंकि आज के ज़माने में समंदर के तल से सुई ढूँढा जा सकता है पर विवेकशील आदमी को ढूँढना नामुमकिन है …..ठहरिये बात पूरी नहीं हुई है ….छिछले ज्ञान का छदम आवरण ओढ़े ज्ञानी तो कई मिल जायेंगे पर वो ज्ञानी विरले मिलेंगे जिनके ज्ञान में सच का आत्म-स्वीकृति हो ,जिनके ज्ञान उस हीरे जैसा हो जो सच के खराद पे चढ़ के चमकता है ..जो सच को कहने के लिए थोथे दलील का सहारा नहीं लेता … जो निज मन को टटोलता है फिर कहता है ,वही जो उसने अवचेतना के सूक्ष्म स्तर पे महसूस किया है ….मन एक अथाह समंदर है और ज्ञान का हीरा मन के अवतल पे रक्खा है….छिछले गोते से कम नहीं चलेगा …गहरे में जाना होगा ….अवचेतना के गहरे स्तर को ज्ञापित करना हीं तो ज्ञान है ..

 

काग भुशुण्डी की तरह कांव कांव करने वाले ज्ञानी ,उनको मैं बहरूपिया कहूँ तो ज्यादा उपयुक्त होगा…. वे अपने अंतसमन पे पड़े नंगे सच को वो बराबर देख रहे हैं पर चूँकि डरपोक हैं कहेंगे नहीं किसी से ….कहेंगे क्या- अपनी नंगई ?

 

एक नंगे सच से आपको अवगत कराऊं…. सुनेंगे ज़रा ठहर के ,खुले दिमाग से ,पूर्वाग्रह का बगैर कोई चश्मा पहने …..एक बार बस खुद को सच के पारावार में गोता खाने के लिए छोड़ दीजिये और सुनिए मेरी बात ध्यान से …

 

ज्यादातर मामलों में इंसान अगर किसी को इज्ज़त देता है या प्यार करता है न तो यह Conditioning  की देन है conditioning के चमत्कार को समझाने के लिए एक रोचक तथ्य का सहारा लेना चाहूँगा . . ऊंट को उसका महावत शुरू शुरू में मोटे मोटे जंजीरों  से बांधता है फिर केवल बाँधने का स्वांग करता है …ऊंट को लगता है कि वह सचमुच मोटे जंजीरों से बंधा है …हस्बे आदत वह बैठा रहता है अपने खूंटे के पास .

 

मेरे पिता ने अपने पिता ,पितामह से सुना और  मैंने अपने पितामह से सुना की माँ महान होती है ,पिता पूजनीय होते हैं ……हजारों साल से यह घुट्टी हमे पिलाई जाती रही है और इसलिए हम माँ बाप की इज्ज़त करते हैं ठीक यही conditioning  लागु होता है माँ बाप द्वारा बच्चों को प्यार किये जाने में भी …जी हाँ conditioning ..अगर यह स्थायी भाव होता तो मन में उह-पोह कि स्थिति नहीं बन रही होती …सोंच का तराजू कभी अच्छाई तो कभी बुराई के तरफ नहीं झुक रहा होता …मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि चाहे नैनो सेकंड के लिए हीं सही एक बेटा सोंचता है गिरी से गिरी बातें  -पिता के मरणोपरांत कितना पेंशन मिलेगा ,अनुकम्पा की नौकरी मिलेगी या नहीं ..उनके मृत्यु उपरान्त होने वाले बीमा के रकम का आकलन करता है …क्या है यह सब ?…..अपने देहाती माँ बाप को कहीं शानो शौकत वाली महफील में ले जाने से पहले दो बार सोंचता है कि कहीं माँ का जाहिलपन मुझे मजाक का पात्र तो नहीं बना देगा ….भले अंतर्द्वंद के बाद उसका मन अपने विकार पे काबू प् ले पर यह सभी घटनाएँ होती ज़रूर है …क्या है यह सब ? …और जब यह सब बातें अन्तह  हिरदय में अवघटित हो रही होती हैं तो एक और Conditioing द्वारा आरोपित एक विचार आता है ‘छि यह तू क्या सोंच रहा है अपनी माँ ,अपने पिता के बारे में’ और आदमी झट से अपने विकृत सोंच का कपट बंद कर देता है ….और तो और इस कदर शरीफ हो जाता है कि खुद को भी यह भान नहीं होने देता कि उसके ज़ेहन में नैनो सेकंड के लिए हीं सही ऐसी सोंच आई थी …….क्या है यह सब ? …आपने देखा होगा एक माँ अपने कमाऊ पूत को अपने निकम्मे बेटे से ज्यादा प्यार करती है …क्या है यह सब ?

 

माँ के साथ दुर्व्यवहार करके देखिये …देखिये उनका प्यार आपके लिए कैसे छू मंतर हो जाता है ….या आपके माता -पीता आपके साथ दुर्व्यवहार कर लें ..बस आपके संयम के ,सहन -शक्ति के ज़रा पार तक फिर देखिये वो माँ बाप जिसपे आप बड़े बड़े आलेख लिख रहे हैं ,कैसे विलेन बन जाते हैं आपके लिए .. आप यह सुन कर खूब बवेला मचाएंगे पर आप इस सच को  नकार नहीं सकते …इन्सान दो हीं तरीके से जी सकता है बुद्ध बन कर या बुद्धू बन कर …बुद्धू हैं तो ज्ञान की पिपासा कभी जेगेगी  नहीं …और अगर बुद्ध बन गए तो सब समझ जायेंगे ….(आपको विदित होगा की विपासना  के बाद एक दिन जब बुद्ध अपने घर भिक्षा मांगने आये थे तो उन्होंने अपने माँ और पिता को अपना माँ -पिता मानने से इनकार कर दिया था ).. बीच वाले लोग बड़े खतरनाक होते हैं ..वे शब्दों के कयिकाओं से मेल-मिलाप कर लौट आते हैं ,उनके रूह में उतरते नहीं …और चूँकि वे रूह में नहीं उतरते हैं,वे लेख का अभीष्ट नहीं समझ पाते ….

 

यह सारी बात कहने के बाद अब कहता हूँ वो बात जो शायद हम सबको वज़ह देती है एक दुसरे से जुड़ने का …इसे समाज शास्त्र के भाषा में परस्पर निर्भरता का सिर्धांत कहते हैं ..यह जहाँ कहीं भी है-.माँ -बच्चे के बीच ,किसान और बैल के बीच वहां प्यार है ..जहाँ नहीं है वहां प्यार न्यूनतम  रूप में दीखता है ..उदहारण के लिए Middle East ke ERID ZONE जहाँ के उसर ज़मीन में खेती नहीं होती और इसलिए परस्पर निर्भरता कम है और इसलिए प्यार भी कम है …वहां के लोग आक्रामक  हैं …असमाजिक हैं …..नदियों के किनारे उपजाऊ ज़मीन पे सभ्यताएं ,मेलो-मिल्लत की संस्कृति इसलिए विकसित हुई क्यूंकि खेती के बहाने ,हल बनाने वाला ,कुदाल फावड़े बनाने वाला ,अन्न उपजाने वाला ,अन्न बेचने वाला  सभी के बीच परस्पर निर्भरता बढ़ी और बढ़ा भावनात्मक सम्बन्ध ….

 

पर सच्चा प्यार इससे भी श्रेष्ठतर चीज है ….वहां आपके प्रिय के प्रति आपका वस्तुगत भाव  नहीं,अध्यात्मिक भाव रहता है …वहां आप उसपर अपना स्वामित्व नहीं चाहते ….आप बस उसे चाहते हैं ..बगैर वाणिक वृति  रक्खे ,बगैर उसके गुण-अवगुण का आकलन किये ..बगैर उसे महान कहे . ..ज्यादातर लोग प्यार को एक वसुगत निकाय मान लेते हैं … तभी तो लड़की से प्यार किया और एक खूबसूरत सामान के तरह शादी कर घर ले आये और रख दिया कोने में ….सामान जर्ज़र हुआ ,रूप लावण्य कम हुआ और प्यार काफूर …माँ-बाप  के मामले में  माँ बाप जब तक ज़रूरतों को पूरा करने वाले बने रहें (फिर चाहे वो ज़रुरत मौद्रिक हो ,आया बन बच्चों के देख रेख करने की हो या अन्य कोई ज़िम्मेदारी )महान बने रहे ….{एक बात स्पष्ट कर दूं की इस मंच पे बहुत से सज्जन ऐसे होंगे जो अपनी माँ से गहरा प्यार करते होंगे पर मैं Theory of average की बात कर रहा हूँ कतिपय उदाहरानो की नहीं .}

 

यह कहना कि माँ महान है तो ज़रा बताइए उन कुवारी लड़कियों का क्या जो ज़ज्बात के रौ में बह कर गर्भाधान कर लेती हैं और फिर समाज के निंदा के भय से अपने पेट में पल रहे बच्चे को मरवा डालती हैं ….चलिए आंकड़े के परिप्रेक्ष्य में बात करते हैं …प्रतिदिन संसार में १ लाख १५ हज़ार लड़कियां  या यूं कहें माएं अपने पेट में पल रहे बच्चों को मरवा डालती हैं …उनमे ७० % वो औरतें हैं जो लोक लज्जा के भय से ऐसा करती हैं …तो बताइए क्यूँ नहीं उनकी ममता लोक निंदा के उनके भय पे हावी पड़ती हैं …जब उन्ही  औरतों को ऐसा लगता है मातृत्व सामाजिक मान्यतों और मर्यादाओं के दायरे में हैं तो वे अपने मातृत्व का डंका पीटने लगती हैं …..या शायद गलत कह रहा हूँ मैं हम आप मातृत्व को अलौकिक ,अनुपम ,महानतम घटना मान लेते हैं ….इसलिए कि हम उन बच्चों में से नहीं जिन्हें कोख में हीं कब्र नसीब हो गया …..गौर कीजियेगा शादी से पहले का मातृत्व पाप ….शादी के बाद का मातृत्व महानता …यह बात मेरे समझ के तो परे  हैं .

 

मेरे विद्वान दोस्तों सबसे पहले तो एक ग़लतफ़हमी दूर कर लें कि महानता एक generic phenomena (आम घटना) है …जी नहीं अगर ऐसा होता तो भारत में हर महिने 20 लाख औरतें माँ बनती हैं …कायदे से जिस देश में हर महीने २० लाख लोग महान बन रहे हैं,उस देश का तो अब तक  काया कल्प हो जाना चाहिए था . …माने मेरी बात महानता एक विरले होने वाली एक खास और व्यक्तिपरक घटना है ….यह एक व्यक्तिगत गुण है …हर किसी पे महानता का विशेषण नवाज़ देना  बेवकूफी है ….देखा जाये तो लगभग हर शादीशुदा औरतें माँ हैं …आपके बगल में रहने वाली वो पड़ोसन भी जो कुंजर्नियों की तरह लडती रहती हैं …वो औरत भी माँ है जिससे दुखी होकर पति आत्महत्या करता है …सास ताने उलाहने देती हैं …क्या वे सब महान हैं ….आप जिस औरत को, अपनी माँ को महान कह रहे हैं वह आपके उत्कट प्रेम जनित भावों का परिणाम है पर उसी समाज में कई ऐसे लोग हैं जो उस औरत को १० खूबियों ,१० खामियों वाला साधारण इन्सान समझते हैं …माँ और पिता को महान कहने के पीछे सामाजिक अभियांजना यह है की हम अपने जन्मदाता के प्रति अनुग्रह का भाव रखें …..तो रखिये न ,पर आँखें खोल कर …..उनके गुण ,अवगुणों को समझते हुए क्यूंकि अगर आप उन्हें महान समझने का पूर्वाग्रह रखे रहंगे तो उनके मानव-सुलभ विकारों का उपचार नहीं कर पाएंगे …..फिर आपकी पत्नी आपकी महान माँ से प्रतारित होती रहेंगी और आप माँ के स्तुति गान में खोये इस वास्तु-स्थिति से अनभिग्य रहेंगे ….एक व्यग्तिगत udaharan के ज़रिये  अपनी बात स्पष्ट  करना  चाहूँगा …मेरे पिता मुझे बहुत अजीज हैं ….मेरा ज़र्रा ज़र्रा उनका ऋणी है …पर मैं उन्हें अकेले किसी दुकान में जाकर खरीद फरोख्त नहीं करने देता क्यूंकि मुझे उनका एक अवगुण पता है ..मुझे पता है की वे थोड़े गुस्से वाले हैं ..दुकानदार ने ज्यादा कीमत कहीं बता दी तो वे लगेंगे खरी खोटी सुनाने …’दुकानदारी क्यूँ करते हैं आप लोग ..डकैती कीजिये ‘कुछ इस तरह की तल्ख़ बातें ….कोई दुकानदार उन्ही की तरह गुस्से वाला हुआ तो वह बेअदबी पे उतर आएगा …..अपने पिता की मैं इज्ज़त करता  हूँ पर उनको महान मान कर मैं आँखें मूंद लूं तो मेरे पिता हीं सबसे पहले खुद को मुसीबत में डाल लेंगे … और मैं मानता हूँ की आप सबों को भी अपने अजीजों का गुण अवगुण पता है ..आप उनकी प्रकृति के हिसाब से रन निति तय करते हैं ….कहाँ उन्हें ले जाना है ….कौन सी बातें बतानी है …खूब सोंचते हैं आप …

और इसमें कुछ गलत भी नहीं …फिर तो आप भी जानते हैं की आपके माता पिता खूबियों और खामियों वाले साधारण इन्सान हीं हैं …फिर यह महानता का भरी भरकम शब्द उनपे क्यूँ  लादना..बगैर ऐसा किये भी तो हम बड़ी शिद्दत  से अपने पुत्र धर्म का निर्वहन कर सकते हैं .

 

जिधर देखों माँ माँ की रट लगी है ….घमसान वाकयुद्ध छिड़ा है औरतों के माँ बनने के मुद्दों पर ….मां नालायक है या नहीं यह तो पता नहीं पर हाँ  इस मुद्दे के चक्कर में कई माँ के लाल नालायक ज़रूर बन गए …. थोड़ी नालायकी मैंने भी कर दी जब देखा लोगों को एक अकेले आदमी पे व्यंग्य का विष बुझा बाण चलाते हुए ….. यहाँ अपने उस बेहूदगी को उद्धृत कर रहा हूँ (लाल रंग में क्यूंकि वो शब्द रुपी ज़ज्बातों का रक्त-श्राव है ):

 

एक तरफ भुजंग विषधर ..एक तरफ मानव दर्प धर …बताइए कौन जीतेगा ….मैं बताऊँ मानव …क्यूंकि मानव तो ज्ञानी होता है …दूसरों को मुर्ख समझने वाला …..अरे महत्मनो..समय की कताई से सोना बुनने वालों …..एक बार और समय जाया कर लो और संदीप जी के लेख को /सरिता जी की टिपण्णी को फिर एक बार पढ़ लो ….क्यूँ उनके मूंह में वो बातें ठूस रहे हो जो उन्होंने कही नहीं …..ज्ञान की उत्कृष्ट चोटी पर झंडा फहराने वालों ,उतनी ऊँचाई से देखोगे तो लोग कीड़े मकौड़े(मुर्ख) हीं दिखेंगे …..थोडा विनम्रता के धरातल पे भी उतरो और उनके लिखी बातों का सही मतलब समझने की कोशिश करो …उन्होंने एक औरत के गले से मातृत्व का अलंकरण उतारा है तो उस औरत को सर्व-भौमिक वात्सल्य का चन्द्रहार पहनाने के लिए …..उस औरत को एक व्यक्तिक जननी माँ से जगत जननी माँ बनाने के लिए ….पर जिन आखों में अहम् का मोतिया बिन्द हो उन्हें यह सब कहाँ दीखेगा …..उलटे मेरी बातों से काफी मिर्ची लगेगी ….तो आत्म-शलाघा में डूबे रहने वालों लोगों मैं हूँ थोडा कूड़ दिमाग …तुम्हे मिथ्या स्तुति की शिरी पिलाने से तो रहा ……तुम्हारे पूँछ पे पांव रख दिया ….आओ फुफकारो ,विष वमन करो ….मुझसे भी कहो कि लोक-प्रियता अर्जित करने के लिए मैं यह सब लिख रहा हूँ …फिर मैं जोर से हसूंगा और कहूँगा –

 

वो शोलगी भरी कैफ़ियत और सीरी ज़ुबान वाली शख्सीयत:

वो लुभावने ज़िल्द में छिपी घटिया दास्तान वाली शख्सीयत:

वो काली सोंच और सफ़ेद गिरेबान वाली शख्सीयत:

वो बेचकर गैरत और ईमान ,हुए महान वाली शख्सीयत:

अगर ऐसे बनती है शख्सीयत तो हम गुमनाम भले

 

थोथे शब्द तो मैं  सह भी लूं  पर थोथे विचारों को कैसे सहूँ ?….और इससे भी ज्यादा जो बात मुझे नागवार गुजर रही थी वह थी लोगों का व्यकतिगत टिका करना ….भाई दो लोगों के विचार अलग हो सकते हैं …दोनों अपना अपना पक्ष रख सकते हैं …पर एक दुसरे को  असुर.मुर्ख ,संस्कार विहीन कहने लग जाना यह तो लेखकों को बिलकुल शोभा नहीं देता ….आप तल्ख़ से तल्ख़ बातें कहिये ,होने दीजिये विचारों का द्वन्द पर व्यग्तिगत टिका टिपण्णी करना कहाँ की समझदारी है. आप अपने एक वक्तव्य में माँ के महान होने का दंभ भर रहे हैं वहीँ किसी को संस्कार विहीन कह  उसकी माँ को गाली दे रहे होते हैं …..आखिर जींस का हीं तो दूसरा नाम संस्कार है …..यह कैसा न्याय हुआ आपका …

 

माँ पे कविता मैंने ही लिखी थी और बहस वहीँ से शुरू हुई थी … उस कविता का शीर्षक था ‘-इसे पढोगे तो अपने माँ से और भी ज्यादा प्यार करने लगोगे’ ….लोगों ने इसे पढ़ा और बजाय माँ से ज्यादा प्यार करने के ,आपस में ज्यादा  तकरार करने लगे ….अब इस बहस को लगाम लगाने की एक आखिरी इमानदार कोशिश कर रहा हूँ ….जो समझ गया वो ज्ञानी …जो नहीं समझा वो महाज्ञानी …उसे तो ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते ….इसमें कोई शक नहीं कि वे औरतें परम पूज्या हैं जो  बड़े हर्षो-उल्लास के साथ मातृत्व का वरन करती है ,यह जानते हुए भी कि माँ बनना,जन्म देना कितना कष्टसाध्य है ….कितना पीड़ा दायक है …एक जीवन ज्योत जलाने कि कोशिश में उनके खुद की समां-ए-हयात बुझ सकती है ….पर आज के सन्दर्भ में माँ बनना न केवल खुद के साथ निष्ठुरता है बल्कि उस शिशु के साथ भी निष्ठुरता है  जो विषाक्त हो चुके पर्यावरण में ,गला काट प्रतियोगिता वाले माहौल में विरल हो रहे साधनों के साथ येन-केन-प्रकारेण से जिंदा रहने के लिए छोड़ दिया जायेगा ….माँ तो चली जाएगी परलोक ,रह जायेगा उनका बच्चा रोटी,हवा पानी ,ज़मीन की खीचमतान करते लोगों की अपार भीड़ में अकेला लड़ने के लिए या भूखे मरने के लिए …..और पराया बच्चा भी कोसेगा इस माँ को -कहेगा हाय ज़िन्दगी के नहिफ से जुगाड़ को किस किस से बाटुं ???  और तब महान माँ सचमुच नालायक कहलाएंगी ….क्या इससे बेहतर यह स्थिति नहीं कि एक समर्थवान औरत सुडान,सोमालिया या भारत के ही कुछ ऐसे  बच्चों की माँ बने  जो कुछ इस तरह की ज़िन्दगी जीते हैं  :

 

समानान्तर दूर बहुत दूर तक चलता यह शहर

लंबे चौडे रास्तों को संकुचित बनाती भीड,

मध्यस्थता करती है या पाटती है समांतरता को .

एक करीने से सजा खिडकीयों का महल

जिसकी हर खिडकीयां अपनी ऊंचाइ के कारण

भीड के उस पार अपने समानान्तर देख पाती है

या फ़ेंक पाती है विदेशी लेबलों के खाली डब्बों को .

उस पार चिंदरीयों के छत का अतिकर्मण

या ऊंचाइयों का कूडेदान

जिसके फ़टे चिंदरीयों के अन्दर जमा होते हैं

खाली डब्बे ,बेकार कपडे ,झूठन उन ऊंचाइयों के.

सरकारी योज़ना है अगले माह इन झुग्गियों को हटाकर

एक विस्त्रित बाजार बनाने की ,जहां मौज़ूद होंगी

अमीरों के एशो-आराम की नुमायगी की तमाम सामानें .

सरकारी द्वारा निर्धारित कूडेदान नहीं यह

इसलिये झुग्गियों का अतिकर्मण ज़रूर हटेगा .

हां इसकी आशवस्ता है कि उस चिंदरी के बाशिंदों को छोड,

तमाम कूडा सरकारी कूडा-घर में जमा होंगी

 

स्वप्नहीन सूखे शरीर एक टेक बनाते

समानान्तर लंबी उन पटरियों पर

शून्य को निहार रहे होते हैं .

कुछ एक पैरों से सुगबुगाते ,

जीवित होने का आभास दिलाते ,

छोटे-छोटे नंगे-अधनंगे शरीर लिपटे हैं .

उनकी यह बेकदरी

उन सूखे स्तनो के खींचने के कारण है ,

जिनसे वे प्राण की चंद बूंदे न खींच पाये

अपने यौवन उत्कर्ष पर गर्मी इतनी तीव्र कि

अपनी प्रचंडता का अहसास

वातानूकुलित कार के अन्दर तक करा जाती है .

फ़िर वही बध्यता पेपसी के केन को खोलने की ,

होठों पे प्यास जो उमड आयी होती है .

कार की खिडकी से बाहर गिरते

उस डब्बे की टनटनाहट

तानपूरे से भी ज्यादा मधुर या

अदभूत वह जीवन शक्ती जो पत्थर से दबे घांस को

फ़िर से सतह पे ले आती है.

गेंद सा सिकुडा वह बच्चा डब्बे की टनटनाहट पर

दौड जाता है,डब्बे को पलटता है,

रंगों की विविधताओं को निहारता है और चाहता है

उस चटकीले रंगों वाले केन से खेलना ….

फ़िर स्तनो के तरह सूखे उस खाली केन को

साहाबी रूआब के साथ होठों से लगाता है कि

तभी एक तमाचा उस बच्चे के गालों पर…..

निस्तेज़ ,निष्क्रिय ,निष्प्राण आंखों वाला वह आदमी

अपने बच्चे से उस केन को छीन लेता है

कुछ इस तरह मानो बहुत बडी सम्पत्ती हो वह…..

क्या दो सूखे रोटीयों का जुगाड इतना मंहगा भी हो सकता है ?

 

****

 

उनके नन्हे आँखों में शून्य के भाव

जैसे कोई सफ़ेद कैनवास में

सफ़ेद रंग भरता जा रहा हो

आकार देने के मद्दे ब्रुश चल रहा है

आंकें,बनाए,बुने तरीकों से

पर सफ़ेद पटल पे सफ़ेद रंग की

कोई तस्वीर नहीं उभरती ….

बस यही निरंतरता

उन नन्हे आखों में जो

शून्य की गहनता में कुछ

स्वप्नमयी आकार देना चाहते हैं …

जारी है प्रयास विराम को पाने का ,

इस मुगालते में कि कहीं

कोई आकार उभरेगा ..

अजीब विडम्बना !

ग्रीष्म ऋतू के गर्म थपेड़ों के बीच

सूखे होंठों वाले बच्चे तरलताएं उड़ेलते हैं ..

स्तब्ध रातों में हड्डियाँ तक को भेदती

शीत ऋतू की सर्द हवाओं के बीच

नन्हे से ठिठुरे हाथ

लोगों को उष्णताएँ परोसते हैं ;

साहब के बूटों को वो

चमकाते हैं नंगे पैर और

चौक दर चौक हथेलियों पर

जमीं किस्मत लेकर

नन्हे हाथ लोगों को ज़रूरतें बेचते हैं

इस आस में कि कहीं

चंद सिक्कों कि रगड़

उनके हाथों कि ढीठ किस्मत को

मिटा दे

दुर्बल सी काया न जाने किस प्रेरणा से

भेद पाती है शोरों को या

दौड़ पाती है भीड़ की

उन्मुख्ताओं के साथ

न जाने कितनी झांकियां

जीवन के विसंगताओं की …

एक हीं पटरी पर दो समानांतर जीवन ..

सरपट भागते कदमो को

आवाज देती आशाएं

दूर सामानांतर तक चलती है उनके साथ

‘जूते पोलिश करा लो साहब ‘…

सूट पे सटीक संगतता को दर्शाती टाइयाँ

जिनको बेच लेने की आतुरता

निर्लिप्त है उन मासूम आँखों में ;

कभी नहीं देखी ललक उनमे

साहबी रुआब को नकलाते

अपने अधनंगे जिस्म में टाई लगाने की

या बलून बेचते बच्चों को

प्रयासों के बाड़े से निकलकर

उन्मुक्ताओं की हवाओं में

एकाध बलून तैराने की ..

नहीं देखा उनको अपने हीं रेहड़ी से

कभी कुछ चना फांकते ,

कभी कुछ बुँदे गटकते ..

केवल और केवल इसी प्रयास में

कि शायद अपने जीवन के

सफ़ेद पटल पे सफ़ेद रंगों से हीं

सही कुछ आकार देख सकेंगे

दुर्बल बदन की सुगबुगाहटों पे

जीवन को ढ़ोती उनकी जीजिविषा ,

इसे चरमं तक ढ़ोने का प्रयास करती है

और करती है प्रयास हमारे सम्मुख

लज्जाओं के चरम स्तर तक

और हम अपने

एयर कंडीशन रूम में बैठे

अपनी महानता के कसीदे गाते हैं ,

अपने मातृत्व ,

अपने वात्सल्य पे दम भरते हैं

 

 

P.S-जानता हूँ भानुमती का पिटारा खोल दिया है मैंने ….तरह तरह की बातें होंगी …..आपके  हर सुतार्किक आलोचना  ,हर मंतव्य का स्वागत है बस कृपा कर व्यक्तिगत छींटाकशी से बचियेगा ….हाड़ मांस का इंसान हूँ ….पीड़ा होगी तो पलटवार करूँगा …कलमकारी ठीक ठाक कर लेता हूँ तो तय है की नहले पे दहला फेंकूंगा

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