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मैंने GOD से पंगा ले लिया

Laptop wala Soofi
Laptop wala Soofi
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एक सपना शुरू हुआ
और शुरू हुआ
झीने पलकों के अन्दर
कल्पनाओं के व्यपगत विचार
जिस पर मन की गोरैय्या
नित प्रतिदिन
तिनकों के ताने बाने बुनती ….
और एक दिन
एक प्रचंड हवा बही यथार्थ की
और सब ख़त्म
कहीं इश्वर भी उस ढहते टूटते
स्वप्निल अधिवासों के
ऐश्वर्य सा तो नहीं
जिसे मैंने कभी भोगा हीं नहीं

हाँ कहाँ भोगा है इश्वर को मैंने ? कहाँ देखा है इश्वरत्व या इश्वर की अनुकम्पा मैंने जो मान लूं इश्वर को मैं

अनूप अवलोक्य जीवन के
पारगम्य पारलौकिक तथ्य
अंतर उद्भुत यक्ष-प्रश्न के
अनगिनत अनुत्तरित सत्य
जीवन और मृत्यु का वृतांत 
न जाने कितने ऐसे
गहन गुढ सिर्धान्त
मनस्वियों का मुनित्व और
मर्मग्यों की मिमांसा ,
तपस्वियों का तप और
दार्शनीकों की विवेचना
अनेक उत्क्रम अनेक उद्धम
अप्राप्य रहा पर ईश्वर
और आत्माओं के ज़्वर
बने रहे निरंतर

हाँ मेरे आत्मा का ज्वर तो अनवरत बना  हुआ है …..कहां दिलाई निजात खुदा ने मुझे मेरे सोग से …कहते हैं मौला समंदर है और इंसा दरिया-ए-पायाब  …..तो कहाँ मिला समंदर मुझे ?….विषमताओं की जेठिली धुप मेरे प्राण बूंदों को सुखाती जा रही है …कहाँ कोई इश्वर मेरे रक्षार्थ आ रहा ?
 
दरिया-ए-पायाब हूं मैं ,एक समन्दर तलाश रहा हूं
मैं गर्दिश-ए-अय्याम में,अपना मुकद्दर तलाश रहा हूं

चलो मैं हतभाग्य हूँ या मेरे करम में खुदा का मेहर नसीब नहीं पर एक अबोध बच्चा जिसके हाथों की लकीर भी ठीक से दृष्टिगोचर नहीं होती…. उसे उसके बाप के द्वारा मार दिया जाना खुदा का कौन सा करम है ?फिर तो खुदा यही कहूँगा कि –

आत्म-स्वीकारोक्ति मेरी
मेरा अपार्थिव विश्वास
तुम्हारे पार्वत्य प्रकृति के
समक्ष हारा
क्षितिज पे तैरता ज्योत
और अन्य ऐसे
अपहूंच आभास और
संतृप्त हुई अटकलें
तुम्हारे होने की
‘वह इश्वर हीं उद्भूत
करता होगा जीवन’
अतीत के गर्भ में
पनपा यह विश्वास
विरासत में मिला मुझे
आज किन्तु
आत्म-स्वीकारोक्ति मेरी 
मृत्यु के इस
महा-क्रंदन के मध्य
आत्म-स्वीकारोक्ति मेरी 
मेरा अपार्थिव विश्वास
तुम्हारे पार्वत्य प्रकृति के
समक्ष हारा

”ऐश में यादे खुदा नहीं और तैश में खौफे खुदा नहीं ”….मानता हूँ  खुदा कि कुछ बन्दे ऐसे होते हैं…उनके खुदा के मानने में मतलबपरस्ती होती है

उस दिन जब नभ में दामिनी
नागिन सी बलखा रही थी,
उस दिन जब झंझा
रौद्र रूप में गा रही थी,
जब लग रहा था कि
आसमान से प्रलय टूट पडेगा
और चुन चुन के
सबके प्राण हरेगा ,
उस दिन हर किसी के सांसों में
मंत्रों का गुंजन था,
प्रार्थनायें थी,दूआयें थीं और
त्राही-माम का क्रंदण था
पर जैसे हीं प्रलय का
खतरा टल गया,
हर किसी के ह्रिदय से इश्वर
जाने कहां निकल गया .

पर खुदा तुम्हे ऐसे मतलब परस्तों की नाअहली याद रहती है पर अपने आदिलों की साजिदगी नहीं ….तुम्हे पता है तुम किस किस के खुदा हो ? …..वो गरीब बच्चे जो अपनी निस्तेज,निष्प्राण भूखी माँ के सूखे स्तनों से प्राण की चंद बुँदे भी नहीं खींच पाते हैं,उनके भी खुदा हो तुम …..उस माँ के भी खुदा हो तुम जो अपने मृत शिशु के मांस के लोथरे को सीने से चिपकाये महा-विलाप करती है ….उस महा-विलाप में भी तुम्हारे हीं नाम का नालाहा होता है खुदा ….तुम उस आशिक के भी खुदा हो जो ताउम्र तुम्हारी इबादत करता रहा ,तुमसे अपनी माशूका का कुर्बत मांगता रहा पर जिसे मिला तो सिर्फ हिज्रे-सनम …दर्द में सना शामे-फुरकत …..सुनो एक आशिक तुमसे क्या कहता है :

कभी राहे-इश्क पे ए रब ठहर के देखना ,
कभी यार से ए रब बिछ्ड. के देखना
कभी हिज़्र की एक रात गुज़ार के देखना
कभी अश्क की बरसात गुज़ार के देखना
ए खुदा कभी देखना तू बन के हमसा
ए खुदा कभी देखना तू बन के हमसा

तुम्हारे हीं मेहरबानी का नतीजा है कि अब इश्क भी बस ग़ज़लों के काफिया में महदूद रह गया है और खुदा तुम भी विप्र के अन्गोछियों में खुदे रह गए हो ….तुलसी के चौपाइयों में सिमटे रह गए हो :

गालियों के संख्याओं को
हर शिशूपाल जब इसे शतशत दुहरा रहा ,
हर दु:शासन चौराहे पर
लूटता द्रोपदी का लज्जा-वसन ,
अब कहां कोई किशन उनके रक्षार्थ आ रहा

तुलसी के चौपाईयों से ऊतर आओ राम
कि उतर आओ विप्र के अंगोछियों से खुदे कृष्ण ,
मिथकों के स्वामी तुम गहरे बसे आत्माओं में
या आत्ममुग्धीकरण के दशाओं में,
यथार्थ भव: राम ,यथार्थ भव: कृष्ण
कि तुम अगर कल्पगाथाओं के नायक तो भी
तुम्हारा सज्जनतव कभी अनुवर्तित नहीं हुआ ,
हां रावणत्व अपने वृद्धिमान  भुमिकाओं में
अपने अनगिनत अनुषंगियों के साथ छाता जा रहा.

तुम हो या नहीं पर तुम्हारे नाम का बाज़ार खूब चल रहा है खुदा ….सब खुदा बने बैठे हैं यहाँ …यहाँ तो आलम ये है कि –

यह दुनियां सब के ठेंगे पे है
यहां सब सब के मिर्ज़ा जी हैं
यहां सब के शान शहाने हैं
यहां सब खुदा-ए-मजाज़ी हैं

यह तो भला हो मेरे ठोकर खा खा कर संग्रहीत अनुभवों का कि मैं महात्म्य के हिज़ाब के पीछे छिपे अय्यारी को समझने लगा हूं ….जिस चेहरे पे मैं कल तलक रब देखता था,रियाज़त देखता था,अब उसी  चेहरे पे नाअहली देखने लगा हूं:ए काश वो सचमुच कि वो सचमुच पीर होते  …..पाखंडी बाबाओं के लिए अपने एक शेर के ज़रिये यह कहना चाहूँगा क़ि –

बन कर खुदा तू मेरा क्या मुकद्दर लिखेगा
मैं पीर-मुर्शिद हूँ मुझे पाखंड-शनासी आती है

खुदा तू गुलफाम है और यह दुनिया तेरी बगिया …..सम्हाल जा खुदा क्यूंकि –
        
ए गुलफ़ाम तेरे बाग के मंज़र बदलने लगे हैं’
फ़ूल मुरझाने लगे हैं,अब खार उगने लगे हैं

आखिर में एक बात कहूँगा खुदा कि जब तक हमारे आँखों में सपने हैं तू है ….जिस दिन इन्सान बेनियाज़ हो गया तेरा वजूद भी ख़त्म हो जायेगा –

हमारे हसरतों के दम पर ए खुदा तेरी हस्ती है,
वरना बेनियाज़ों का सुना है कोई खुदा नहीं होता.

इसलिए खुदा

न सता बेदर्द तेरे
चाहने वाले को
तेरे सितम से चाहत
कहीं रूठ न जाये;
आ जाये आँखों में
अश्क कि कहीं भूल से
डर ओ बेमुरब्बत कि
कहीं तू डूब न जाये :

 

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