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इसे पढोगे तो अपनी माँ से और भी ज्यादा प्यार करोगे

Laptop wala Soofi
Laptop wala Soofi
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 आज अपनी पहली कविता उन नालायक बच्चों पे लिख रहा हूँ जो इतने अहसान फरामोश होते हैं कि अपनी माँ का किया सारा त्याग भूल जाते हैं ….भूल जाते हैं कि ये वही माँ है जो अपने फान्काहाली  में भी उनकी सारी ज़रूरतें पूरी करती थीं …जो खुद भूखी सोती थी,खुद चिथड़े पहनती थीं पर उन्हें अच्छा खिलाती पहनाती थीं ….वे भूल जाते हैं कि अगर माँ ने वो उत्सर्ग, वो त्याग नहीं किया होता तो आज वे उस मुकाम पे कभी नहीं पहुंचते जहाँ पहूंचकर उन्हें खुद पे रुआब होता है:

    ***

जानता हूँ तू बहुत परेशान है

अपने आलिशान फ़्लैट के

कोने में पड़े

कुछ बेतरीब सी बोसीदा चीजों से; 

जानता हूँ कि तेरे शाहानेपन में

एक बदनुमा,बदरंग

मखमल पे टांट के पैबंद सा

लगती है वो चीजें ;

यह भी जानता हूँ कि

वो चीजें हैं –

तेरी माँ की पुरानी सिलाई-मशीन,

बाबा की बांसूरी और

उन दोनों चीजों को सहेजती

तेरी बूढी विधवा माँ ;

मैं यह भी जानता हूँ कि

अब उस सिलाई मशीन की

कमाई का मोहताज़ नहीं तू ,

न हीं तेरे बाबा के पुराने

बांस के पीपे से

अब कोई सुर निकलता है

और तेरी माँ…..

तेरी माँ तो अब

अपने मोतियाबिंद आँखों से

सुई में धागे तक नहीं डाल सकती ;

जानता हूँ कि ये सारी चीजें

अब तेरे लिए बेकाम ,

बेकार की चीजें हैं ;

जानता हूँ कि तेरे घर में

जब पार्टी होती है

और बड़े बड़े रसूखदार लोग

जब स्वरों के तीव्र संगुफन पे

नाचते गाते हैं तो

पुरानी सिलाई मशीन ,

बांस का पीपा और

तेरी दमाग्रस्त माँ के

साँसों की धौंकनी

तेरे अतिविशिष्ट मेहमानों के

मस्ती कि तरतीब बिगाड़ देती है

और तब तू बड़ी लज्जा

महसूस करता है सबके सामने ;

बस ज़रा सा इंतज़ार और कर ले ….

इन बोसीदा,बेतरीब चीजों को

वक़्त का घुन

हौले-हौले खा जायेगा

और मिट जायेंगे ये खुद-ब-खुद ;

तब तक इन्हें बीते दिनों का

सुविनीअर मान कर,

उस गुज़ारे ज़माने के

स्मृतिका के रूप में ,

घर के किसी अंधियारे गोसे में

पडा रहने दे ,

जब तेरे घर में

दो सूखे रोटियों के भी लाले होते थे

और जब तेरी यही बोसीदा सी माँ

अपने हिस्से का निवाला भी

तेरे मूंह में डाला करती थी.

 

नालायक बच्चों की बात की तो अब एक कविता उन बेचारे बच्चों पे भी हो जाए जो चाहते तो हैं सफलता के बुलंदी पे पहूचना पर उनका हतभाग्य उन्हें सफलता से महरूम करता रहता है …ऐसे बच्चे आश्वस्त हैं कि उनके माँ कि दुआएं एक दिन ज़रूर मुकम्मल होंगी पर तब भी ऊन्हे फ़िक्र है कि जब ऐसा होगा तो क्या उनकी प्यारी माँ उस सुख को भोगने के लिए जीवित होंगी :

       

        ***

मेरी मां अक्सरहां मुझसे कहा करती है कि

सब्र रख बेटा एक दिन तेरा भी वक्त आयेगा :

तू भी ध्रुव तारे सा शोभित करेगा

आसमां के मष्तक को,

तू भी अमर किर्ती के ज्योत-पूंज सा

सारे नभ में छायेगा :

पर आखिर कब होगा ऐसा तब जबकि

ढाढस और दिलासा देने वाली मां हीं नहीं रहेगी ,

तब जबकि आशाओं की बाती वाली

आखिरी लौ भी जल बुझेगी:

 

जाते जाते अब उस पिता की भी बात कर जाऊं जो गरीब है ..जो हर सुबह निकल जाता है अपने काम पे ….न जेठ की गर्मी देखता है और न हड्डियों तक को भेदने वाली पूस की शीत-लहरी ….जो लगा रहता है जी तोड़ मेहनत करने में ताकि अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर सकें ….

थका मांदा वह जब घर लौट रहा होता है तो सोंचता है की घर पहुच कर उसे शकुन के कुछ पल नसीब होंगे पर हाय रे गरीबी और हाय रे कभी न ख़त्म होने वाली ज़रूरतें उसके घर के बरामदे पे उसका स्वागत करने के लिए तैयार बैठी होती हैं …..दोस्तों मुझे विश्वास है की आपमें में से कईयों के प्यारे पिता आपके भविष्य की खातीर ज़िन्दगी के ऐसे हीं ज़द्दो -जेहद से गुजरे होंगे ….अगर हाँ तो ज़रा अपनी आप बीती अपने इस दोस्त से बांटिएगा :

 

   ***

मैं प्रति-दिन सूरज की भांति

आगंतुक बन जाता

सुबह और शाम का ,

श्रम और विश्राम का :

सुबह की स्फूर्ति

हर ढलते पलों के साथ

नैराश्य का आलिंगन करती ,

क्षीण होती जाती

पर न जाने कैसे

मेरे लौटते कदम से कुछ पहले

एक उषा-काल की उर्जा

मुझे चूम लेती और

उर्जान्वित हो तेज कदमो से

लौटता मैं अपने पुरखों के

जीर्ण-शीर्ण श्रम-कण से पूति

मिटटी के उस बरामदे पर ….

इससे पहले कि लोहे की

उस कुंडली को मैं बजाऊँ ,

एक तीखा स्वर ढनढनाते

खाली टीन के डब्बों की

लय पर बजता और

ताल पे ताल मिलाकर

स्वरबद्ध हो जातीं

कुछ और आवाजें ….

‘भूख लगी है’ ‘आंटा नहीं है’

कुछ इस तरह के बोल होते ,

शुष्क गले की वो राग

वेदना के तार पे जो बजते ;

तब क्या ये संभव था कि

उन तीखे स्वरों की

तीव्रताओं को

कुंडली की टनटानाहट से

चीर पाता मैं और इसलिए

उन शुष्क गलों को तरने,

खाली डब्बों को भरने ,

जेब में पड़े चंद गिन्नियों को

गिन जाता मैं ;

कमीज के उस इकलौती जेब को

देर तक टटोलता हुआ

अधूरी कीमत हीं तलाश पाता ,

फिर भी कुछ और पाने की

आस लिए मैं अपनी जेब को

फिर एक बार टटोल जाता ;

प्रयासों में डूबा शीघ्र हीं मैं

चिर-परिचित

उस दुकान के पास होता

‘आज नगद कल उधार’

की उस तख्ती पर

मैं एक उपहास होता …

उपेक्षित दृष्टियाँ मेरा स्वागत करतीं ,

तौल जातीं मेरी

उस अधूरी कीमत पर

मेरी ज़रूरतों को

परन्तु रह जातीं अधूरी कीमतें

फिर भी शेष

मेरी ज़रूरतों के साथ पूरा करने को ;

अनवरत चलता रहता यह क्रम

मेरी अधूरी कीमतों का,

मेरी अधूरी ज़रूरतों का

और इन सबसे जूझता रहता मैं

प्रतिदिन लौटता

अपने उस मिटटी के बरामदे पर ,

फिर लौटता ,फिर लौटता मैं .

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