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चलो तुम्हे एक अजीब सी दुनीया दिखाता हूँ

Laptop wala Soofi
Laptop wala Soofi
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दोस्तों कविता वो रूहानी पंख है जिसके सहारे ज़न्नत तक की परवाज़ी की जा सकती है ….हाट,बाट,गैल,गामा,नदी,पहाड़ सब जगह घुमा जा सकता है ….बस अपने आपको इन कविताओं के साथ उड़ने दीजिये स्वछंदता के नीले आसमान में …सच कहता हूँ ऐसा जाविदाँ सा अहसास होगा आपको कि ……बस ज़रा ठहर कर प्यार से शब्दों की इस तरनी में बैठिएगा …फिर देखिये कहाँ ले जाती है ये आपको

दोस्तों यहाँ कुछ ऐसी कवितायें भी हैं जो मैंने अपने ब्लॉग में तब डाली थीं ,जब आपसे मेरा दिल से राबिता नहीं हुआ था और शायद इसलिए ये कवितायें आपके-नज़रे-करम से महरूम रह गयीं ..तो लीजिये पेशे-खिदमत है आपके ज़िन्दगी के विविध रंगों को दीखाती मेरी कुछ कवितायें :

***

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन    

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन                                      

 

मां कि मनाही बाबा की बन्दीशें                                                                                         

रिमझिम फ़ूहारों में भींगती कशीशें                                                                                            

और किचड. में सने यलगारों के दिन

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन                                                                                              

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन

ईमली के बूटों पे धमाल मचाते                                                                                             

कच्ची अमौलियों को रस लेके खाते                                                                                             

वो ख्वाईशों की चालें सपनों की बिसातें                                                                                

कटती पतंग के पीछे दौड. जाते                                                                                                     

वो शरारतें कई वो डाटें अनगिन

 

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन                                                                                     

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन

 

गुल्लक मे जमा सतरंगी उम्मीदें                                                                                               

फ़ोड. के उनको जो चाहा खरीदे                                                                                                   

चवन्नी में चमकते सितारों के दिन

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन                                                                                              

कितने अच्छे थे बचपन के वो दिन

***

बचपन के उस बियावन में

 

जेठ की अलसायी दुपहरी में

जब सब सो जाते थे और

दूनियां बेगानी सी लगती थी,

मैं निकल पडता था

उबड-खाबड कच्चे

पगडंडियों पे दोस्त ढूंढने;

हाथ में कपास की संठी लिए,

भुरभुरी रेतीली ज़मीन पे

आडी-तिरछी लकीरें खींचते हुए

मैं नदी के मेड. के

किनारे-किनारे चलता रहता

और साथ-साथ

पुरबैय्या की सांय-सांय और

नदी के सतहों पे उठता

तरंगों का गुंज तो कहीं

पास के बागीचे में कहीं

धप्प से गिरते पके आम

और बंसबिट्ठी के अधिवास में छिपी

किसी कोयल का तरन्नुम बजता रहता ;

ताल सूना,तल्लैया सूना,

दरख्तों पे लगा झूला सूना,

बाट सूना,बरौठा सूना,

गांव का कोना-कोना सूना,

कहीं जब कोई आदमज़ात न दिखता था ,

मैं हार कर खुद से बतियाता था

आह बचपन के उस बियावन में

मैं कितना सुकून पाता था.

***

नानी के ज़माने की वो पूस की रात

 

मेरे नानी के खपरैल मकान में

मुझे याद है

पूस की स्याह सर्द रात में

जब हवा सर्र से गुज़रती थी

तो डिबरी के कांपते लौ में

खुटा,आंगन,नीम सब पेंगे लेतीं थीं,

नीम पे बैठा कोई निशाचर

जब फ़र्र-फ़र्र कर उडता था,

हम रजाई में और भी दुबक जाते थे;

दुबका तो बेचारा कामिक्स भी होता था ,

स्कूल की किताबों के बीच

और बाहर तब निकलता था

जब हम भाई-बहनो के ज़मात में

कोई भांडा फ़ोड देता था

और जब नाना जी

जोर से फ़टकारते थे;

मुझे याद है वो मां के गोद की तरह

उष्ण अलाव

जिसके सुखद सुहावन आंच मे

सिमटे हम बैठे

आलू और कटहल के बीज भूना करते थे

और गोबर से पुता

वो मिट्टी का चुल्हा

जिसमें लकडियां झोंकती नानी

जोर से खांसा करती थी

और वो तवा जिसपे हम

आंटों के हाथी-घोडे पकाते थे,

मुझे सब कुछ याद है;

मुझे याद है

वो रात की स्तब्धता में

तानपूरे बजाता झिंगुर,

वो खपरैली छत के बांसों में

घून की कर्र-कर्र,

वो दूर किसी तालाब से आती

मेढक की टर्र-टर्र,

वो हवा में ऊबती-डूबती रात्री-प्रहरी की

वो ’जागते रहो’ की आवाज़ ,

मुझे सबकुछ याद है;

मुझे याद है

कि कैसे रजनी का रथ

मंथर गति से चलता रहता था

और हम भाई-बहनें एक कतार में लेटे

नानी से परियों के देश के

तिलस्मी किस्से सुना करते थे;

साल-ब-साल अब भी

पूस की रात आती है

पर जाने क्यूं उसमें

अब वो पूरानी बात नहीं:

***

शिर्षक:पहाडों की बारिश

 

पहाडों के ऊपर तैरते बादल

जब गुब्बारों सा फ़ूटते हैं

तो उनके गिरफ़्त से छूट कर

एक नदिया भागती है;

चिनारों की कदमबोसी करती,

आहलाद का राग गाती,

हिरण सी कुचालें मारती

और मिट्टी के मरूनी रंग को

खुद में घोलती हुई

वह नदिया

अपने पिछले मुसाफ़त

के पांव का निशान ढूंढती

पहुंच जाती है

घाटी के बाशिन्दों के पास

और उनपे अपनी शीतलता

उडेल देती है,

पहाडों की बारिश ऐसी होती है.

***

शिर्षक:ये तेरे गांव का मंज़र है

 

पतझड के पीले दरख्तों से होकर

एक पगडण्डी जाती है

जिसपे सूखे ज़र्द पत्तों का

एक गालीचा बिछा है;

पास हीं एक सूखा कुंआ है

जिसके ढहती दिवारों पे

रस्सी की सिलवटों के

नहीफ़ से निशान मौज़ूद हैं,

वहीं थोडी दूर में

बया का एक घोंसला भी है

जो हवा के गर्म थपेडों को

झेलता टंगा है ठूंठ पे

इस उम्मीद में

कि बया फ़िर लौटेगी

जब अब्रे-बहार बरसेगा और

जब लौटेगा बसन्ती बयार

साथ शादाबी लिए …..

क्या तू भी गांव तब लौटेगा

जब बया लौटेगी ?

***

 

शिर्षक:बारिश से पहले

 

ये यकायक क्या होने लगा है?

धरती की धमनियां

धडकने लगी हैं

और आसमां स्याह होने लगा है;

बिजली की आती-जाती चौंध,

जैसे आसमां के स्याह स्लेटों पे

खुदा सुनहरे हर्फ़ों से कुछ

लिखने-मिटाने लगा है….

सुग्गे का झुण्ड

बेतहाशा उडा जा रहा है

पूरब की ओर

और नीम के सघन शाखों में

एक कौव्वा दुबकने लगा है,

ये यकायक क्या होने लगा है?

 

झुक कर माटी की लब-बोसी

करने लगी है मकई

और खिडकी के पल्ले

एक-दूसरे से

गलबहियां करने लगे हैं

कोचवान बैलगाडी को

तेजी से हांकने लगा है और

’चीनिया बादाम’ की रट पे

झट से लगाम लगाता खोंमचे वाला

अपने तराजू-बटखरे

सम्हालने लगा है,

ये यकायक क्या होने लगा है?

 

हवा अपने बवंडरों में

आवारा कागज़ों और टूटे पत्तों को

दौडाने लगी है और

तार के पेड पे अटकी

एक पूरानी पतंग

अब मस्तूल सी फ़हराने लगी है;

बांस की फ़ुनगी पे टंगा

पिछली दिवाली का कण्डील

हिण्डोले सा डोलने लगा है,

क्या सावन अपने सरगर्मियों

का पिटारा खोलने लगा है,

ये यकायक क्या होने लगा है?

शिर्षक:बारिश के बाद

 

उस दिन गोधूली बेला में

धूल के गुलाबी कुहासें

उडाती गायें जब

पांती में लौट रही थीं,

शाम के सांवले शाखों पे

बारिश अचानक फ़ूट पडी थी;

चरवाहा भागा था तब

अपनी गायों के झुण्ड के साथ

बरगद के छतनार के नीचे

और पंक्षी भी

अपने-अपने घोसलों में

दुबक गये थे;

 

बौछार के अचानक वार से

गर्म ज़मीन दरकने लगी थी

और उसमें से

सौंधी सी खुशबू फ़ूट कर

फ़िज़ाओं में महकने लगी थी;

उस दिन लोग दफ़्तर से,

बच्चे खेल के मैदानों से

सावनी फ़ुहार में

सराबोर हो लौटे थे और

भींगे कपडे

ओसारे के अलगनी में

टंग गये थे;

उस दिन आंगन में

मिट्टी के तुलसी-चौरे

रूई के फ़ोहे से गलने लगे थे

और घरों के रसोईयों में

केतली में खदकने लगी थी चाय

और कडाहे में

पकौडे तलने लगए थे;

 

बारिश की बूंदें टीन के छप्पड पे

रात भर उधम मचाती रही थी

और हवा भी

उनके शरारतों में शरीक हो

कभी कजरी तो

कभी सावनी गाती रही थी;

 

अगली सुबह

जब बारिश थम गई थी,

शाखों के धूसर पत्ते धुल कर

सुग्गापंक्षी रंग के हो गये थे

और बारिश के चोट से

चोटिल हो आम और जामुन

ज़मीन पे औंधे पडे थे

जिन्हें चुन रहे थे

नंग-धडंग बच्चे;

खिडकी के छज्जे से

झरने की तरह गिरते पानी को

एक बच्चा

अपने चुल्लूओं में भर कर

अपनी बहन पे छींट रहा था,

पास हीं

मटियाला पानी बह रहा था

और एक अलमस्त

उस पानी में छपछप करता

खुशी से अपनी

आंखें मीच रहा था;

बादलों की ओट से

धूप भी झांकने लगी थी

और इन्द्रधनूषी सीढी के सहारे

ज़मीं का रास्ता मापने लगी थी,

उस कुनकुनी धूप में

कुछ तीतर पंख फ़ैलाकर

खुद को सुखा रहे थे

और रात भर के

अपने भींगने की व्यथा को

भूला रहे थे. 

***

Title:Ek seth aur ek mazdoor ki batcheet

 

 

बाबूजी पहचाने हमको,हम मज़दूर हैं…

न,न,न,न भीखारी नहीं….

पिचका गाल,करिया आंख और

इ दुर्बल मलीन शरीर

तो जलते जेठ और ठिठुरते पूस

की देन हैं बाबूजी

अब क्या करें भूख

मौसम देखकर थोडे हीं आती है बाबूजी ;

धूप,जाडा,गर्मी,बरसात झेलेंगे नहीं

तो टूटते छ्प्प्ड कैसे सिजवायेंगे बाबूजी ,

मुनिया के लिए कापी-किताब

और बडकू के लिये घिरनी वाला बाजा

कैसे लायेंगे बाबूजी ;

छोटकु तो बेचारा बडा सुद्धा था,

कुछ नहीं मागता था,

बीमार था तो दवाई पर दो धेला तक

खरचने नहीं दिया

और हाली-हाली मर गया,

उ हमरी मज़बूरी खूब समझता था बाबूजी ;

उसके मुर्दा शरीर पे हज़ार रुपया का घी

जो हम उडेले थे,हमको पता है,

खूब अखरा होगा उसको बाबूजी ;

बाबूजी जब आप

मोटापा कम करने के लिए

सुबह सैर पे जाते हैं तो

हमहूं निकलते हैं

इ गड्ढा जैसा पेट भरने के लिये ;

पर बाबूजी ईधर कुछ दिन से

आप आ नहीं रहे थे…

मंगना बताया कि अपना ढाइ साल का

बऊआ को उठाने में

आपके पीठ पे चोक आ गया था बाबूजी ….

अब पीठ का दर्द कैसा है बाबूजी ?

बाबूजी  सुने हैं कि आप

पन्नालाल पंसारी को चार बोरा

बासमती चावल का आर्डर दिये हैं.

हाथ जोड के एगो अरज़ है बाबूजी …

उ बोरा अपने घर तक

हमको लाद के लाने दिजियेगा बाबूजी ,

जो मरज़ी मज़दूरी दे दिजियेगा बाबूजी…

मुनियां का कापी नहीं,

बडकू का बाजा नहीं ,न सही,

कम से कम दोगो सुक्खा रोटी का तो

ज़ुगाड हो जावेगा बाबूजी .

***

शिर्षक:एक पत्रकार का अप्रेजल

 

उस दिन एक पत्रकार

अपने बौस से कह रहा था-

’सर आप मुझे प्रमोशन

कब दे रहे हैं ?

आपके कहे मुताबिक मैं

बहुत चटख-मटख ,

बडा हीं सनसनीखेज़ खबर लेके आया ….

खबर वही एक गरीब के आत्मदाह की …

वही गरीब जिससे

जब अज़ार की मार न सही गयी,

हक-तलफ़ी की कटार न सही गयी

तो उसने मरने की ठानी थी

और तब उस बेचारे को,

जिसके पास अपने घर के

ठण्डे चुल्हे को जलाने के लिए

हमस तक न था ,

मैंने उसे हमस भी दिया

और दिया-सलाई भी;

सर उस दिन वह खबर न बनती

क्युंकि मौत के डर से वह गरीब

ठिठका था पल भर के लिए,

तब मैंने हीं उसकी

हौसला-आफ़ज़ाई करते हुए कहा था-

थोडा जलोगे,थोडा दर्द होगा

पर यह दर्द ,यह जलन

तुम्हें गरीबी की असीम पीडा से

उबार देगा’

और तब उसने मेरी हीं बात पे

खुद को आग के लपटों के

हवाले किया था 

और तब मैंने बडे तफ़्सील से

उसके व्यथा की कथा को

अपने कैमरे में कैद किया था ;

सर उस दिन मैं

प्रतिद्वन्दी चैनलों के पत्रकारों से भी

खूब लडा था ..

कहा था-

’चूंकि उस गरीब के जज़्बातों को

बेखुदी के हद तक मैंने छेडा है ,

इसलिए उसके मरने के मंज़र को

सबसे करीब से कैमराबद्ध करने का

अधिकार मेरा है ’

सर मेरा बिजनेस सेंस देखिये ,

मैंने उस फ़ूटेज की कौपीराईट भी

करा ली है

ताकि कोई दूसरा चैनल

हमसे खरीदकर हीं

उस खबर को दिखा पाए

तो बताइये सर

मेरी इस उपलब्धी के लिये

आप मुझे प्रमोशन कब दे रहे हैं ? 

 

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