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अगर जिंदा रहना चाहते हो तो मेरे warning पे ध्यान देना

Laptop wala Soofi
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हाहाकार की कथा

 इंडोनेशिया में भूकंप आया और मेरा अंतर्मन सिहर गया ….२००४ के  सुनामी का हिर्दयविदारक मंज़र फिर से आँखों के सामने तैरने लगा ….लगा कि कहीं फिर से प्रकृति हाहाकार की वह कथा तो नहीं सुनाएगी ….उफ्फ कैसे अनगिनत लाशें उथली पड़ी थी अथाह जल राशी में …..फिर याद आ गयी एक और बात कि भले कई लोगों का संसार उजड़ गया था ,कई लोग मौत के गर्भ में समा गए थे पर इस विभीषिका के तुरंत बाद आई दीवाली उस साल उसी धूमधाम से मनी थी जैसे हर साल मनती है ….दौलतमंद लोगों ने अपने दौलत की रानाई में अपने शहनेपन की खूब नुमाइश की थी…..आह क्या बेदिली दीखाई थी दौलतमंद लोगों ने …..अपनी इस कविता के ज़रिये ऐसे ही  लोगों  को मैं चेतावनी देना चाहता हूँ …बल्कि चेतावनी मैं नहीं देना आ चाहता ,मैं तो वहां गया भी नहीं….वो गिद्ध चेतवानी देना चाहते हैं जो स्वभावतः निष्ठुर होते हैं ….जिनके लिए इस तरह की विभीषिकाएँ दावत के एक स्वेच्छाचारी  निमंत्रण की तरह होती हैं पर वहां का हिरदय -विदारक दृश्य देखकर उनका निष्ठुर हिरदय भी पसीज गया ….उन्ही गिद्धों को क्रोध भी आया जब उन्होंने देखा कि कैसे विलासताओं के गतिविधियों में आकंठय लोग आपदाग्रस्त गरीब लोगों के प्रति आँखें मूंदे बैठे हैं ….मेरी इस कविता में  उन्ही गिद्धों कि वो चेतावनी उद्धृत कर रहा हूँ:

 

मैं गया तो नहीं वहां पर

निराश लौटे गिद्धों ने मुझे

हाहाकार की कथा

सुनाई थी

गिद्ध उवाच –

‘मीलों तक के माटी को

खारापन जब पाट कर

लौट चुका था और जब

लौट चुका था वात

विदुर्प चक्रों के साथ ,

हम उतारे थे

कटु तिक्त अनुभवों से

करने संवाद;

जीवन को चरम तक

ढ़ोने कि जिजीविषा

और प्रयास

नाखूनों से मिटटी नोंचकर

क्षुधा शांत करने की,

हमने लाशों को थोडा

सुगबुगाने दिया

क्यूंकि सुगबुगाती लाशों के

निश्चेष्ट,पहाड़ से विकल्प

अनगिनत प्राण उथले थे

उन बृहद जल राशियों में

जो लाशों के मंथन से

छोटा पड़ गया था;

 

धर्मोन्माद से परे

भूखों के दंगे ,

चौराहे पर चीखती भीड़

और मुट्ठी भर राहतों को

लूटते नंगे-अधनंगे ,

वितृष्णा ने धर लिया हमें

और हमारे संयम ने

अट्टहास किया

जब स्वप्न्लिका ने खींचें

गरम खून और नरम मांस के चित्र ;

 

उस पत्तेविहीन

मोनाद्नौक से खड़े

विशालकाय कतिपय शाखों पर

हमारे आँखों में

अभिलिप्शिप्ताओं के जुगनूँ

अंधकार में खोते

उस औंधे पड़े आदमी को

स्पष्ट दिखे जब हम उड़े उसकी ओर ;

उसके सजल याचनाओं के

गूढ़ गड्ढ़ सी आँखों पे हीं

हमने पहला प्रहार किया

कि कहीं वह जीवन न याचे ,

पर ये क्या !

उसके निष्प्राण चेहरे पर

कुछ वक्राकार लकीरें उभरकर

निस्तेज होठों पे बंद हो गई

-शायद वह मुक्ति बोध था ;

 

आकांक्षों पे उतरा

कसैला आस्वाद पहले कभी नहीं ,

आंसूवों का खारापन या

समंदर के खारेपन से

शिक्त आँखें नोचते हीं ;

अब दूसरा प्रहार

जीवन की निष्ठुरता से

कठोर हो चुके बदन पे …

पर अस्थियों का जर्जर ढांचा

दुर्भिक्ष के लम्बे अंतराल में

मांस की परतें खो चुका था

और कुंद हो गए चोंच हमारे

चोट करते हीं ;

 

असफलता की गहन पीड़ा

उतरोत्तर बढती गई

हरेक विकल्प के साथ

और लौटे थक कर हम

पुनः तुम्हारे महल के प्राचीर पर ;

जब तुम विलासताओं के

गतिविधियों से थक जाओगे

और दोगे मृत्यु को

स्वेच्छा से निमंत्रण ,

आश्वस्त हैं हम ,

वैभवताओं को निचोड़े

तुम्हारे स्थूल शरीर

पूरा नहीं जलेंगे

और तब हीं

उस अधजले मांसों को खाकर

अपनी भूख मिटायेंगे हम ‘

उसी गुम्बज पे बैठे

उन गिद्धों ने मुझे

यह हाहाकार की कथा सुनाई थी .

 

(हिन्दू संस्कार में इससे ज्यादा बड़ी दुर्गति नहीं हो सकती की किसी की लाश न जले और उन अधजले लाश को कोई गिद्ध नोंच नोंच कर खाए )

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