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दोस्तों जब लोगों को मैं मज़हब के नाम पर हेय और हिकारत का पाठ पढ़ाते देखता हूँ ,देखता हूँ जब दो मजहबों के बीच फैलते वैमन्यस्ता को ,वो जमीं जहाँ कभी सुकूत का दरिया बहता था ,आज वहां शोलों का सैलाब बहते देखता हूँ तो सच कहता हूँ ज़ारो कतार रोता हूँ मैं …इस फोरम पे अपनी चंद कविताओं व नज्मो के माध्यम से आपसे कुछ कहना चाहता हूँ …चाहता हूँ की मेरी सोंच के नहीफ से कतरे को आपके संगत का समंदर मिल जाए और फिर बड़े वेग से बहूँ मैं और बहा दूं हर फिरकापरस्ती को … क्या आप इस फिरकापरस्ती को मारने में मेरा साथ देंगे ?
१)
ये अच्छी बात है कि खुदा मुंज़मिंद है पत्थर में,
अगर बजिंसहा होता तो देख के दुनियां शर्मिंदा होता
२)
तू जो नैपथ्य के ईश्वर के हवाले से
मुझे रंज़ सीखाने आया है,
शंकर का त्रिशूल थमाने आया है ,
राम का गांडिव थमाने आया है;
तू भूल गया कि किस परीपेक्ष्य में
उठा था अस्त्र उनका,
तू भूल गया कि बडा. हीं धर्म-निरपेक्ष
था शस्त्र उनका,
तू भूल गया कि उनके तीर से
किसी फ़िरके का कोई फ़र्द नहीं
बल्कि एक दानव मारा गया था ,
तू भूल गया कि उनके त्रिशूल से
एक निज़न्द,एक गमज़दा
मानव उबारा गया था ;
आज जो चला है तू
धर्म का प्रपंच गढ.
देश की स्मिता बचाने ,
धर्म के नाम पर
हेय और हिकारत की
संहिता सीखाने,
याद रख खंज़रे-हिकारत का
चस्का-ए-लहू
बडा वहशी होता है ,
एक दिन यह अपने हीं हाकिम का
सीना चीरता है,
अपने हीं आका का खूं पीता है.
३)
अगर आप सख्त कलेजे वाले हैं
तो कभी अहमदाबाद के गुलबर्ग
के उस खंण्डहर में जाइये
जिसके विराने दयार में अब भी
भक्क से जले मांसों का दुर्गन्ध
भभक उठता है;
जहां जले दरख्तों पे अब भी
कोई कोपल नहीं फ़ूटा है;
जहां बारिशों के कई मौसम
जले मकानो का स्याहपन धो नहीं पाए हैं;
जहां टूटे परकोटों और ज़ंग लगे जंगले
के बाहर बैठा एक बूढा चौकीदार
जाने किसकी रखवाली कर रहा है;
फ़िर कहता हूं कि
अगर आप सख्त कलेजे वाले हैं
तो हीं वहां जाइये क्योंकि
वहां की हवाओं में घुली चित्कारें,
दरीचे से झांकते दर्द
और पेड के ठूठ पे टंगा
किसी बच्चे का टेड्डी बीअर
सच कहता हूं आपके हड्डियों में
सिहरन पैदा कर देगा:
४)
उन दिनों एक खुदा था ज़ुरुर जो
किसी मंदिर,किसी कलसे में नहीं ,
किसी मंत्र,किसी कलमें में नहीं
बल्कि दिल के ज़ाविया में रहता था;
तब न पैगम्बरी वक्त था
न कयामत का कोई आसार था,
तब धोखे और छलावे के
पहिये पे न चलता संसार था;
५)
ए दोस्तों चलो लौट चलें फ़िर
एक बार हम
अपने बचपन के ज़ानिब
उसी ज़माने में ,
तब जब न आबो-हवा में
कोई तंज़ होता था ,
तब जब हममें फ़िरकापस्ती न
कोई रंज़ होता था ,
जब धूल रक्स करती थी
हमारे बेतकसीर बदमाशियों के साथ ,
और शाखे-गुल थिरकता था
सुन हमारी मासूम किलकारियों की थाप;
जब ज़ुम्मन और ज़ावेद
राम और रमेंश से छीन कर
सीरी वाली रोटियां चाटा करते थे ,
जब हिंदू और मुसलमान
बडे. खुशपोशी से
आपस में ईदी और दिवाली बांटा करते थे ,
तब जबकि गुल्ली-डंडा
और लुका-छिपी का खेल हमें सियासत की
नज़रें-बद से बचाता था ,
तब जबकि
हमें बिना किसी मज़हबी पंख के
उडना आता था.
ए दोस्तों चलो लौट चलें फ़िर
एक बार हम
अपने बचपन के ज़ानिब
उसी ज़माने में .
और आखिर में ऊपर लिखे अपने रचनाओं के बारे में अपनी एक और कविता के माध्यम से यही कहना चाहूँगा कि –
कितना अच्छा होता जो मेरे स्याही को
किसी इंसां का लहू नहीं,
बल्कि खुल्द,खुलूस,खैर और खुशी का
खुशनूमा रंग मिलता;
मैं लिखता फ़कत अफ़साने
मेलो-मिल्लत के,
कितना अच्छा होता जो मुझे
तंज़ो-तल्खीयत का न कोई प्रसंग मिलता;
PAWAN SIVASTAVA
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