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उनके लिए जो अपने पापा से बहुत प्यार करते हैं

Laptop wala Soofi
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एक बूढा आदमी जो अपने उम्र के आखीरी पडाव में है,अपने पेंशन के पैसे से अपने पुश्तैनी मकान को सजाने संवारने में लगा रहता है ….कभी रंग-रोगन करवाता है तो कभी दीवारों पे बन आये दरारों को भरवाता है …वह नहीं जानता कि गुलाब का जो नन्हा सा पेड उसने रोपा है ,उसके चटखदार फ़ूलों के खिलने तक वह ज़िन्दा रह पायेगा भी या नहीं …पर फ़िर भी वह बडे उमंग से पौधा लगाता है इस उम्मीद में कि एक दिन दूर शहर के आपाधापी में व्यस्त उसका बेटा जब लौटेगा तो उस सजे संवरे पुश्तैनी घर के पुरशुकून माहौल में आराम के चंद लम्हे बीतायेगा ….इसी सोंच को व्यक्त करती पेश है मेरी यह कविता :

 

उस पूराने पुश्तैनी मकान में

जाने क्या सुख का अलम

पाते थे बाबूजी

जो उस मकान की

मुसलसल मरम्मत

कराते थे बाबूजी;

बाबूजी के पूराने पेशावरी तल्ले की तरह

घिसे उस मकान में था हीं क्या –

एक जर्जर बरामदा,

ढहती दिवार ,

बरगद की छाया और

आंगन के कोने में दुबकी

हरसिंघार की दुबली सी काया

जिसपे धूप की तितली

हर रोज़ बैठा करती थी;

अब बाबूजी नहीं रहे

और उस मकान के मरम्मत की

रवायत भी नहीं रही;

अब उस मकान के दिवारों से

पीपलें फ़ूट आयी हैं

और आंगन में लंबी-लंबी

दूबें ऊग आयी हैं;

कभी जब उधर से गुज़रता हूं

तो अज़ीब सा भ्रम होता है मुझे,

कभी बाहर

बरगद के नीचे गिरे सूखे पत्तों के ढेर पे

किसी की पदाचाप सुनाई देती है

तो कभी बरामदे में रक्खी

बाबूजी की आरामकुर्सी

हिलती हुई दिखाई देती है;

भ्रम तो भ्रम है ,

इससे आज नहीं तो कल

उबर हीं जाउंगा मैं

पर उस सवाल का क्या

जो हरदम मेरे ज़ेहन में                                          

उमडता रहता है कि आखिर

उस पूराने पुश्तैनी मकान में

ऐसा क्या सुख का अलम

पाते थे बाबूजी

जो उस मकान की

मुसलसल मरम्मत

कराते थे बाबूजी;

पवन श्रीवास्तव

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