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वो लेखिकाएं थी या WWF की पहलवान ?
रात की स्तब्धता को चीरते जैसे कोई रात्री प्रहरी टाह देता हैं- “जागते रहो..जागते रहो”, यह जानते हुए भि कि कोई जगा नहीं , हर कोई रजनी की बाँह मे बेसुध लेटा हैं, मैं भी दरवाजे दरवाजे दस्तक देता था हिन्दी के अनकहे शब्दों का टोकरा लिए , यह जानते हुए भी कि कोई कदरदान नहीं , कोई मेरी पहुनाई करने वाला नहीं . मैं कौन- हाशिए पे खड़ा हिन्दी का एक लेखक, एक अफ़साना निगार, जिसे फक्र था, गौर कीजियेगा फक्रथा कि –
कुछ इस तरह हमारा अंदाज़े किस्सागोई होता है कि,
खुद कहानी भी हमे बड़े शिद्दत से दाद दिया करती है
भ्रम जल्दी हीं टूट गया, जब जद्दोज़हद और नाकामी के लंबे दौर के बाद मेरे ज्ञान चक्षु खुले और एहसास हुआ कि हाय –
‘गर ने रखते ये शौक–ए–सुख़न हम जो,
दौरे मुफ़लिसी कब कि रवां हो गई होती
पर आदत तो आदत है, गज़ब कि ढीठ….. मेरे बोधिसत्व पे भी हावी रही, और लिखवाती रही मुझसे, इधर उधर, कभी इस ब्लॉग पे तो कभी उस ब्लॉग पे ,तो कभी फ़ेसबूक पे!
एक दिलचस्प वाकया सुनिए- फ़ेसबुक पे मैं अनवरत दिल के तह से निकली, जज़्बातों के फोहे मे लिपटी अपनी रचनाएं परोस रहा था, पर कोई भुला भटका भी, भूले से मेरे लिखे रचनाओं को पढ़ नहीं रहा था….दिल पे कटार तो तब चल गई जब देखा कि एक खूबसूरत नरगिसी बाला के, “आज मैं pizza खाऊँगी” पे १०४ liking और ५२ कमेंट थे !ज़िल्लत ने जोरों कि लात जमाई मुझे और मैं बेआबरू हो फिर ढूँढने लगा एक मुकम्मल मंच, अपने विचारों को पदासीन करने के लिए ….किसी ने बताया जागरण जंक्शन के बारे में….टोहता, तलाशता मैं पहुँचा जागरण जंक्शन के दरवाजे पे, पर ये क्या ! वहाँ तो कुछ लेखिकाओं का अहंकार सुरसा जैसा विकराल मुँह बाये खड़ा था ,सबको लीलने के लिए आतुर .जी हाँ लेखिकाएं …..चंद के नाम लेने की ज़ुर्रत कर रहा हूँ – कोमल नेगी, रश्मी खाटी , तमन्ना …सभी अपने नाम की सार्थकता भूलाए एक अज़ब हीं रूप में दिखीं….. देखा कोमल अपना कोमलत्व खोए बैठी है, तमन्ना कि सारी तमन्ना उसके निज-अस्तित्व को सींचने मे लगी है और रश्मी प्रचंड-दाह-विकर्ण बन हर उस लेखक को स्वाहा करने मे लगी है जो उसका थोड़ा भी वैचारिक प्रतिकार करता है…ऐसे एक भुक्तभोगी का नाम लेना चाहूँगा—-संदीप कुमार (wise man’s Folly)…वो लेखिकाएं थी या डबलू-डबलू-एफ़ की पहलवान ?
हिन्दी के कलमकारों को बामुश्किल इज्ज़त मिलती है और हिन्दी के हीं हम-विरादरों के बीच इतनी खींचमतान,इतना जूतमपैजार देखकर बडा अफ़सोस हुआ….संदीप बेचारे पर अमर्यादित होने का आरोप लगाया गया था ….विडम्बना यह थी कि लेखिकाओं ने खुद बडा हीं अमर्यादित शब्दों क चयन किया था -’घटिया’ ’ छिछोरा’ जैसे शब्द …यह तो वही बात हो गयी कि किसी गाली देने वाले से जब जबाब-तलबी कि जाये तो वह कहे -कौन साला कह रहा है कि मैं गाली दे रहा हूं. मैंने संदीप जी के लिखे लेख को बार-बार पढा पर मुझे हर बार वो लेख मतान्तर दर्शाने वाला लेख मात्र लगा …..मर्यादा के हर सम्भावित प्रतिमानो पे मैंने उसे परखा पर किसी भी नज़रिये से मुझे संदीप जी का लेख अमर्यादित न लगा….मैंने उन लेखिकाओं के सुन्दर चेहरे का सुमिरन कर अपने अन्दर एक पुर्वाग्रह भी पैदा की पर तब भी संदीप जी के मर्यादा कि डंडी डिगती दीखाई न पडी …..अंतोगत्वा जो समझ में आया वह यह कि ऐसी लेखिकाओं को तल्खियत भरी सच्चाई से रुबरू कराना भी एक अपराध है ……समझ में आया कि हर वो लेख जो इन लेखिकाओं के प्रति जरा भी विरोधाभास का पूट लिये है-अशोभनीय है,अमर्यादित है,असंसदीय है और आज मैंने भी यह अपराध कर दिया है .अब देखना है कि लेखिकाओं की ये राखी सावन्त मुझे किन विशेषणो से नवाज़ती हैं-घटिया ,छिछोरा या कुछ और ……अंत मे उन लेखिकाओं के प्रतिक्रियात्मक और रोष भरे उस लेख के बारे में यही कहना चाहुंगा कि-
वह लेख था या किसी के आत्ममुग्धीकरण में
की गई आत्म-वंचना थी
वह लेख था या किसी के अहंकारों के
इती-वृत की संप्रेषणा थी
वह लेख था या कलम की पहुनाई थी
वह लेख था या चाकरी करती रौशनाई थी
PAWAN SRIVASTAVA
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