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जिस ज़माने पे तमाम उम्र हम ज़ज्बात लुटाते रहे उसी ज़माने से मुसलसल हम ठोकर खाते रहे.
मैं एक लेखक हूं ….वो लेखक जिसके रेज़े रेज़े में भावनाओं के अति-संवेदनशील अणु विद्य्मान है….वो लेखक जिसे खुदा ने ऐसी आंखें अता की है ,जो चेहरे पे लिखी हर तहरीरें पढ लेती हैं …..तहरीरें कभी पुरकशीश मुस्कुराहट के तो कभी वहशीयाना हंसी के ,तहरीरें कभी दुख और सोगवारी के तो कभी बेइम्तहां खुशी के .वो चेहरा जिसपे दर्द का अफ़साना अयां होता है,मुझे अपना लगता है क्युंकि मैं भी उन शिकनपस्त चेहरों सा दुख और सोगवारी के गलियों का मुसाफ़िर रहा हूं…पर उन्हीं चेहरों वाला कोई दोस्त जब मुझे ’पडोसी ’ कहकर किसी से तार्रुफ़ कराता है तो रिश्तों के फ़ासले पे मुझे ताज़्जुब होता है .
आजकल दूर बहुत दूर रिश्तों के आखीरी सरहद पे अगर कुछ है तो वह है -’पडोसी ’ ..उस आखीरी सरहद के पार तो बस अज़नबी हीं होते हैं ….क्या करुं….क्या खुश होऊ कि मैं कम से कम उसके लिये अज़नबी नहीं या अफ़सोस करुं रिश्तों के इस फ़ासले पर जिसके दरम्यां दोस्त या भाई जैसा कुछ लफ़्ज़ भी हो सकता था…ए ज़माना हम बस तुझसे यही कहन चाहेंगे कि-
जो भूल जायेंगे प्य्रार का हम अंतिम तराना , तो रह जायेगा साज़ बस आग लगाने वाला.
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