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नानी के ज़माने की वो पूस की रात

Laptop wala Soofi
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नानी के ज़माने की वो पूस की रात

 

मेरे नानी के खपरैल मकान में

मुझे याद है

पूस की स्याह सर्द रात में

जब हवा सर्र से गुज़रती थी

तो डिबरी के कांपते लौ में

खुटा,आंगन,नीम सब पेंगे लेतीं थीं,

नीम पे बैठा कोई निशाचर

जब फ़र्र-फ़र्र कर उडता था,

हम रजाई में और भी दुबक जाते थे;

दुबका तो बेचारा कामिक्स भी होता था ,

स्कूल की किताबों के बीच

और बाहर तब निकलता था

जब हम भाई-बहनो के ज़मात में

कोई भांडा फ़ोड देता था

और जब नाना जी

जोर से फ़टकारते थे;

मुझे याद है वो मां के गोद की तरह

उष्ण अलाव

जिसके सुखद सुहावन आंच मे

सिमटे हम बैठे

आलू और कटहल के बीज भूना करते थे

और गोबर से पुता

वो मिट्टी का चुल्हा

जिसमें लकडियां झोंकती नानी

जोर से खांसा करती थी

और वो तवा जिसपे हम

आंटों के हाथी-घोडे पकाते थे,

मुझे सब कुछ याद है;

मुझे याद है

वो रात की स्तब्धता में

तानपूरे बजाता झिंगुर,

वो खपरैली छत के बांसों में

घून की कर्र-कर्र,

वो दूर किसी तालाब से आती

मेढक की टर्र-टर्र,

वो हवा में ऊबती-डूबती रात्री-प्रहरी की

वो ’जागते रहो’ की आवाज़ ,

मुझे सबकुछ याद है;

मुझे याद है

कि कैसे रजनी का रथ

मंथर गति से चलता रहता था

और हम भाई-बहनें एक कतार में लेटे

नानी से परियों के देश के

तिलस्मी किस्से सुना करते थे;

साल-ब-साल अब भी

पूस की रात आती है

पर जाने क्यूं उसमें

अब वो पूरानी बात नहीं:

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