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शिर्षक:बारिश के बाद
उस दिन गोधूली बेला में
धूल के गुलाबी कुहासें
उडाती गायें जब
पांती में लौट रही थीं,
शाम के सांवले शाखों पे
बारिश अचानक फ़ूट पडी थी;
चरवाहा भागा था तब
अपनी गायों के झुण्ड के साथ
बरगद के छतनार के नीचे
और पंक्षी भी
अपने-अपने घोसलों में
दुबक गये थे;
बौछार के अचानक वार से
गर्म ज़मीन दरकने लगी थी
और उसमें से
सौंधी सी खुशबू फ़ूट कर
फ़िज़ाओं में महकने लगी थी;
उस दिन लोग दफ़्तर से,
बच्चे खेल के मैदानों से
सावनी फ़ुहार में
सराबोर हो लौटे थे और
भींगे कपडे
ओसारे के अलगनी में
टंग गये थे;
उस दिन आंगन में
मिट्टी के तुलसी-चौरे
रूई के फ़ोहे से गलने लगे थे
और घरों के रसोईयों में
केतली में खदकने लगी थी चाय
और कडाहे में
पकौडे तलने लगए थे;
बारिश की बूंदें टीन के छप्पड पे
रात भर उधम मचाती रही थी
और हवा भी
उनके शरारतों में शरीक हो
कभी कजरी तो
कभी सावनी गाती रही थी;
अगली सुबह
जब बारिश थम गई थी,
शाखों के धूसर पत्ते धुल कर
सुग्गापंक्षी रंग के हो गये थे
और बारिश के चोट से
चोटिल हो आम और जामुन
ज़मीन पे औंधे पडे थे
जिन्हें चुन रहे थे
नंग-धडंग बच्चे;
खिडकी के छज्जे से
झरने की तरह गिरते पानी को
एक बच्चा
अपने चुल्लूओं में भर कर
अपनी बहन पे छींट रहा था,
पास हीं
मटियाला पानी बह रहा था
और एक अलमस्त
उस पानी में छपछप करता
खुशी से अपनी
आंखें मीच रहा था;
बादलों की ओट से
धूप भी झांकने लगी थी
और इन्द्रधनूषी सीढी के सहारे
ज़मीं का रास्ता मापने लगी थी,
उस कुनकुनी धूप में
कुछ तीतर पंख फ़ैलाकर
खुद को सुखा रहे थे
और रात भर के
अपने भींगने की व्यथा को
भूला रहे थे.
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